आभास: मैथिली शरण गुप्त

aabhas by maithilisharan gupt

कविता

अरे, ओ अब्दों का इतिहास!
कह, तू किन शब्दों में देगा युग-युग का आभास?

देख इधर, वह विष ही पीते,
हमें यहाँ कितने दिन बीते,

फिर भी अमृतपत्र हम जीते
जिए आत्म-विश्वास।

अरे, ओ अब्दों के इतिहास!
पुण्य-भूमि के इस अंचल में,

सिंधु और सरयु के जल में,
गंगा-यमुना के कल-कल में,

अगणित वीचि-विलास।
अरे, ओ अब्दों के इतिहास!

मंत्रों का दर्शन, अवतारण,
और दर्शनों का ध्रुव-धारण,

वह उपनिषदों का उच्चारण,
योगों का अभ्यास।

अरे, ओ अब्दों के इतिहास!
आत्म-रूप का वह उजियाला,

त्याग, याग, तप की वह ज्वाला,
पावन पवन तपोवन वाला,

वह विकाश, वह ह्रास।
अरे, ओ अब्दों के इतिहास!

कब की थी वह संचित माया,
जो पसार कर अपनी काया,

पाकर राम-राज्य की छाया,
करती थी सुख-वास।

अरे, ओ अब्दों के इतिहास!
बजी चैन की वंशी निर्भय,

आया कलि के आगे अविनय,
फिर भी धर्मराज का जय जय,

छाया वह उछ्वास!
अरे, ओ अब्दों के इतिहास!

हम उजड़ों ने भी बढ़-बढ़ कर,
पार उतर ऊपर चढ़-चढ़ कर,

देश बसाए हैं गढ़-गढ़ कर,
तब भी बिना प्रयास।

अरे, ओ अब्दों के इतिहास!
संघ-शरण लेकर सुखदाई,

फिर भी यहाँ शांति फिर आई,
गूँज गिरा गौतम की छाई,

फिर नव भव-विन्यास।
अरे, ओ अब्दों के इतिहास!

उदासीनता की दोपहरी,
श्रांतिमयी निद्रा थी गहरी,

तब भी जाग रहे थे प्रहरी,
कर न सका कुछ त्रास।

अरे, ओ अब्दों के इतिहास!
सहसा एक स्वप्न-सा आया,

वह क्या-क्या उत्पात न लाया,
जागे तो यह बंधन पाया,

हुआ हाय खग्रास।
अरे, ओ अब्दों के इतिहास!

किंतु निराश न होना भाई,
इसमें भी कुछ भरी भलाई,

तुमने मोहन की मति पाई,
उठने दो उल्लास।

अरे, ओ अब्दों के इतिहास!
निज बंधन भी विफल न जावे,

विश्व एक नूतन बल पावे,
बंधु-भाव में वैर बिलावे,

अनुपम ये दिन-मास।
अरे, ओ अब्दों के इतिहास!

कविता का अर्थ :

कवि इतिहास को संबोधित करते हुए पूछता है कि वह युगों-युगों की गाथा को किन शब्दों में व्यक्त करेगा। भारतवर्ष की महान संस्कृति और परंपराओं को दर्शाते हुए वह कहता है कि यहाँ के लोगों ने विष जैसी कठिनाइयाँ सहकर भी आत्म-विश्वास के साथ अमृत समान जीवन जिया है।

भारत की पुण्यभूमि, यहाँ की पवित्र नदियाँ—गंगा, यमुना, सिंधु और सरयू—समृद्ध संस्कृति और सभ्यता के प्रतीक हैं। मंत्रों के दर्शन, उपनिषदों का ज्ञान, योग और तपस्या के अभ्यास ने इस भूमि को विशेष बनाया है। यहाँ त्याग, तपस्या और यज्ञ की ज्वाला में आत्मशुद्धि की परंपरा रही है।

कवि प्राचीन भारत के रामराज्य की ओर संकेत करता है, जहाँ सुख-शांति का वास था। उस समय भारत में धर्म और नीति का पालन होता था, परंतु समय के साथ परिस्थितियाँ बदलीं। कलियुग के प्रभाव के बावजूद धर्मराज (सत्य और धर्म) की जयकार गूँजती रही।

इतिहास साक्षी है कि इस देश के लोगों ने कठिनाइयों के बावजूद नए नगर और राज्य बसाए हैं, बिना किसी विशेष प्रयास के भी उन्होंने अपने देश को फिर से खड़ा किया है। यहाँ संघ शक्ति के माध्यम से सुख और शांति स्थापित हुई है, और गौतम बुद्ध के विचारों ने फिर से नवचेतना का संचार किया है।

फिर भी, एक समय ऐसा भी आया जब उदासीनता और गहरी निद्रा ने देश को जकड़ लिया, परंतु सच्चे प्रहरी हमेशा जागते रहे और किसी को अनिष्ट नहीं करने दिया। अचानक आए संकट ने सबको झकझोर दिया और जब लोग जागे, तो स्वयं को बंधनों में जकड़ा हुआ पाया।

लेकिन कवि निराशा की ओर नहीं बढ़ता। वह कहता है कि इस बंधन में भी कुछ सीखने योग्य है। भारत ने हमेशा से महान विचारों को अपनाया है, और अब भी यही मार्ग अपनाना चाहिए। बंधनों को तोड़ते हुए, प्रेम और भाईचारे से संसार को एक नई शक्ति मिलेगी, और यह कठिन समय भी अनुपम दिन-मास (महान परिवर्तन का काल) साबित होगा।

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