हम सीखेंगे
- प्राचीन भारतीय इतिहास के स्रोत
- प्रागैतिहासिक काल
- सिंधु घाटी की सभ्यता
- सिंधु घाटी सभ्यता की धार्मिक प्रथाएँ
- सिंधु घाटी सभ्यता की राजनैतिक दशा
- सिंधु घाटी सभ्यता की कलाएँ
- सिंधु घाटी सभ्यता की लिपि
- सिंधु घाटी सभ्यता के पतन के कारण
- More Related Notes
प्राचीन भारतीय इतिहास के स्रोत
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प्राचीन भारतीय इतिहास के अध्ययन में अनेक कठिनाइयाँ है क्योंकि अनेक घटनाओं की प्रमाणिकता एवं उनकी निश्चित तिथियों के संबंध में मतभेद विद्यमान है।
प्राचीन भारतीय इतिहास के निर्माण में निम्न स्रोतों की सहायता ली गई है :–
साहित्यिक स्रोत –
- इसमें तीन प्रकार के ग्रंथों को सम्मिलित किया जा सकता है।
- धार्मिक साहित्य – इसमें वैदिक, जैन तथा बौद्ध धर्म से संबंधित ग्रंथों का स्थान है।
- लौकिक साहित्य – इसमें ऐसे ग्रंथों को शामिल किया जाता है जिनकी विषय–वस्तु धार्मिक नहीं है। जैसे – कौटिल्य का अर्थशास्त्र एवं बाणभट्ट का हर्षचरित।
- विदेशी यात्रियों का विवरण – इतिहास की जानकारी में इन विवरणों का भी महत्वपूर्ण स्थान है। मेगास्थनीज, फाह्यान और ह्वेनसांग जैसे विदेशी यात्रियों ने प्राचीन भारत संबंधी जानकारी हेतु महत्वपूर्ण तथ्य दिए हैं।
पुरातत्व संबंधी स्रोत –
- साहित्यिक स्रोतों की तुलना में पुरातात्विक स्रोत अधिक प्रमाणिक एवं महत्वपूर्ण हैं।
- अभिलेख – इसमें सर्वाधिक महत्वपूर्ण स्रोत अभिलेख है। अभिलेख मुहरों, स्तम्भों, चट्टानों और ताम्रपत्रों पर मिलते हैं। प्रारंभिक अभिलेख प्राकृत भाषा में है बाद में ‘संस्कृत’ का प्रयोग दूसरी सदी से मिलता है। सबसे पुराने अभिलेख जो पढ़े जा सके हैं, वे अशोक के अभिलेख हैं।
- सिक्के – भारत के सबसे प्राचीन सिक्के आहत (पंचमार्क) सिक्के हैं (मुख्यतः चाँदी के)। सिक्कों के आधार पर राजवंशों के इतिहास का पुनर्निर्माण संभव हुआ। विशेषतः हिन्द–यवन शासकों का। गुप्तों ने सोने के सबसे अधिक सिक्के जारी किए, सिक्कों से आर्थिक जानकारी मिलती है।
स्मारक, भवन, मूर्तिकला, चित्रकला आदि भी महत्वपूर्ण स्रोत हैं।
अन्य महत्वपूर्ण तथ्य –
- रेडियो कार्बन विधि से भौतिक अवशेषों का कालक्रम पता लगाया जाता है।
- दक्षिण भारत में लोग मृत व्यक्ति के शव के साथ औजार, हथियार, मिट्टी के बर्तन आदि चीजें भी कब्र में रख देते थे और उसके ऊपर एक घेरे में बड़े–बड़े पत्थर खड़े कर देते थे – इन स्मारकों को महापाषाण (मेगालिथ) कहते हैं।
- तांबा उपयोग में लाई गई पहली धातु थी।
संबंधित महत्वपूर्ण प्रश्न (MCQ – प्राचीन भारतीय इतिहास के स्रोत)
प्रागैतिहासिक काल
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प्राक् इतिहास या प्रागैतिहासिक काल – जिस काल का कोई लिखित विवरण नहीं मिलता। इस काल के बारे में किसी भी जानकारी के लिए पुरातत्व से प्राप्त सामग्री पर निर्भरता रहती है। पाषाण उपकरण, आवास के अवशेष, शैलाश्रय से मिली जानकारी, मिट्टी के बर्तन, खिलौने आदि से जानकारी प्राप्त होती है।
आध ऐतिहासिक काल – इस काल में लेखन कला का प्रचलन के बाद भी उपलब्ध लेख पढ़े जा सके हैं, जैसे – सिंधु घाटी सभ्यता का काल।
ऐतिहासिक काल – मानव विकास के उस काल को इतिहास कहा जाता है, जिसके लिए लिखित विवरण उपलब्ध है।
परिचय
- अर्थ : प्रागैतिहासिक काल का अर्थ होता है इतिहास से पूर्व का युग।
- समय : 5,00,000 ई.पू. से 2,500 ई.पू. तक माना जाता है।
- प्रागैतिहासिक काल को तीन भागों में विभाजित किया गया है –
- पुरापाषाण काल (Palaeolithic Age)
- काल – 5,00,000 ई.पू. से 10,000 ई.पू.
- जीवन यापन – आखेटक एवं खाद्य संग्राहक
- मध्यपाषाण काल (Mesolithic Age)
- काल – 10,000 ई.पू. से 7,000 ई.पू.
- जीवन यापन – आखेटक एवं पशु पालक
- नवपाषाण काल (Neolithic Age)
- काल – 9,000 ई.पू. से 2,500 ई.पू., भारत में 7,000 ई.पू. से
- जीवन यापन – खाद्य उत्पादक, स्थिर एवं समुदाय में रहना
1. पुरापाषाण काल
पुरापाषाण काल पुरापाषाण काल को तीन उपभागों में बाँटा जा सकता है।
निम्न पुरापाषाण काल :
- काल – 5,00,000 ई.पू. से 50,000 ई.पू. तक
- मानव द्वारा आग का आविष्कार, समूह बनाकर शिकार एवं भोजन का संग्रह
- प्रमुख स्थल : भीमबेटका की गुफाएँ, नर्मदा घाटी, सोन नदी घाटी, कश्मीर, थर, बेलन घाटी (उ.प्र.), कर्नाटक एवं आंध्रप्रदेश आदि।
- मुख्य औजार : क्वार्टजाइट से बनी कुठारियाँ, खंडक (Chopper), हस्त कुठारी (hand–axe)
मध्य पुरापाषाण काल :
- मध्य पुरापाषाण काल 50,000 ई.पू. से 40,000 ई.पू. तक माना जाता है।
इस काल को फल्क संस्कृति भी कहते हैं। - प्रमुख स्थल : नर्मदा घाटी, डिडवाना (राज.), नेवासा (महा.), बेलन घाटी।
- मुख्य औजार : पत्थर की पर्वतियों के बने फल्क, छेनी और खुर्दनी आदि। क्वार्टजाइट, जैस्पर, चर्ट के उपकरण।
उच्च पुरापाषाण काल :
- काल – 40,000 ई.पू. से 10,000 ई.पू. तक
- होमो सेपियन्स अर्थात आधुनिक मानव का उदय इसी समय हुआ।
- इस काल के शैलाश्रयों (Rock shelter) के अनेक प्रमाण मिलते हैं।
- मध्य प्रदेश के भीमबेटका में गुफाओं से चित्रकारी के साक्ष्य मिले हैं।
- प्रमुख स्थल : बेलन घाटी, महाराष्ट्र स्थित बीजापुर एवं इगतपुरी, कर्नूल स्थित चित्रुर, हजारीबाग का पटार आदि।
- मुख्य औजार : हड्डियों से बने औजार, फल्क, तक्षणी एवं शल्क।
2. मध्य पाषाण काल
- काल – 10,000 ई.पू. से 7000 ई.पू. तक माना जाता है।
- जीवन यापन – शिकार, खाद्य संग्रह, पशुपालन, मत्स्याखेट।
- पशुपालन के आर्थिक प्रमाण – राजस्थान के बागोर और मध्य प्रदेश के आदमगढ़ से प्राप्त हुए हैं।
- मानव के स्थायी निवास के संकेत, प्रारंभिक साक्ष्य सराय नाहर राय (उ.प्र.) एवं महेदा से।
- मातृदेवी की उपासना और शवाधान की परंपरा का आभास।
- प्रमुख स्थल : बिहार का प्यारा मुघेर, राजस्थान का बागोर, गुजरात का लंगनज, उत्तर प्रदेश स्थित सराय नाहर राय (प्रतापगढ़) और महेदा, मध्य प्रदेश स्थित आदमगढ़ (होशंगाबाद), भीमबेटका (भोपाल) और बेलन घाटी।
- प्रमुख औजार : सर्वप्रथम तीर–कमान का प्रयोग आरंभ। पत्थर और हड्डियों के औजार, ये पुरापाषाणकाल की तुलना में बहुत छोटे होते थे, इसलिए इन्हें माइक्रोलिथ अर्थात लघुपाषाण कहा जाता है।
- हथियारों में लकड़ियों और हड्डियों के हत्थे लगे हंसिए एवं आरी आदि हथियार मिलते हैं। नुकीले क्रोट, त्रिकोण, ब्लेड और नवचन्द्राकार आदि आकार के प्रमुख हथियार थे।
3. नवपाषाण काल
- काल – विश्व में 9,000 ई.पू. से और भारत में 7,000 ई.पू. से 2,500 ई.पू. तक।
- जीवन यापन – खाद्य उत्पादन, स्थिर एवं समुदाय में रहना।
- कृषि कार्य का प्रारंभ, पशुपालन, पत्थरों के घिसकर औजार और हथियार बनाना आदि इस काल की विशेषता थी।
- पत्थर की कुठलियों का प्रयोग।
- मिट्टी के बने बर्तनों (मृद्भांडों) का प्रयोग।
- ग्राम समुदाय का प्रारंभ।
- मानव का स्थायी निवास आरंभ।
- मिट्टी और सरकंडों से बने हुए गोलाकार और आयताकार घर।
- कृषि का प्राचीनतम साक्ष्य – बलूचिस्तान के मेहरगढ़ से।
- मानव द्वारा स्वीकृत प्रमुख अनाज – जौ, अन्य जौ, गेहूँ, खजूर, कपास।
- उत्तर प्रदेश के कोल्दिहवा (इलाहाबाद) से 6,000 ई.पू. के चावल उत्पादन के प्राचीनतम साक्ष्य प्राप्त हुए हैं।
- कश्मीर के बुर्जहोम से गर्त आवास, हड्डी के औजार आदि मिले हैं।
- बिहार के चिरांद (सारण) से हड्डी के बने औजार मिले हैं।
- कुफ़कारी सर्वप्रथम इसी काल में मिलती है, बर्तनों में पॉलिशदार काला मृद्भांड, धूसर मृद्भांड और चटाई की छाप वाले मृद्भांड प्रमुख हैं।
- प्रमुख स्थल :
- सरुत और मास्कडोला (असम)
- उत्रूर (आंध्र प्रदेश)
- चिरांद, सेमुअर (बिहार)
- बुर्जहोम, गुफ्करल (कश्मीर)
- कोल्दिहवा, महगढ़ (उत्तर प्रदेश)
- पैयमपल्ली (तमिलनाडु)
- ब्रह्मगिरि, कोडककल, पिकलिहल, हलूर, मस्की, संगनकल्लु (कर्नाटक)
- मेहरगढ़ (पाकिस्तान)
प्रागैतिहासिक काल – वस्तुनिष्ठ प्रश्न (MCQs)
सिंधु घाटी की सभ्यता
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नामकरण
- इन नगरों की प्रारंभिक खुदाई सर जान मार्शल के नेतृत्व में हुई। इस सभ्यता की खोज सर्वप्रथम 1921 में हुई, चूंकि हड़प्पा की खोज सर्वप्रथम हुई, अतः इसे ‘हड़प्पा संस्कृति’ के नाम से पुकारा जाता है। आरंभिक उत्खनन सिंधु नदी के आसपास हुए इसलिए इसे मार्शल द्वारा सिंधु घाटी सभ्यता कहकर पुकारा गया।
विस्तार
- इस सभ्यता का विस्तार निम्नानुसार था–
- उत्तर में जम्मू के मांडा से दक्षिण के किम नदी तट पर भगतरव तक तथा पूर्व में आलमगीरपुर (मेरठ) से पश्चिम में मकरान तट में मूकटांगोदर तक
- यह सम्पूर्ण क्षेत्र त्रिभुजाकार है और इसका क्षेत्रफल लगभग 12,99,600 वर्ग कि.मी. है। संसार में किसी भी प्राचीन संस्कृति– मित्त्र, सुमेर, मेसोपोटामिया या फारस आदि का क्षेत्र हड़प्पा संस्कृति से बड़ा नहीं था।
विकास क्रम
- खोजे गए स्थलों के आधार पर सिंधु स्थलों को विकास क्रम के आधार पर निम्न भागों में बांटा गया है–
(अ) प्राच हड़प्पा सभ्यता
(ब) परिपक्व हड़प्पा संस्कृति (प्रमुख नगर इसी काल के हैं।)
(स) हड़प्पा संस्कृति की नागरिकोतार अवस्था या उत्तर–हड़प्पा संस्कृति या उप सिंधु संस्कृति– 1800–1200 ई.पू.
सिंधु सभ्यता का काल निर्धारण
• इस सभ्यता का काल निर्धारण रेडियो कार्बन डेटिंग सी–14 के द्वारा लगभग 2300–1750 ई.पू. निर्धारित किया गया है। मोटे तौर पर परिपक्व हड़प्पा संस्कृति का काल 2550–1900 ई.पू. के मध्य रहा। यह सभ्यता मेसोपोटामिया, सुमेर तथा मिश्र की सभ्यताओं की समकालीन थी।
निर्माता
• सिंधु सभ्यता के निवासी भूमध्यसागरीय एवं द्रविड़ लोग थे, यहाँ प्रोटो–आस्ट्रोलायड, मंगोलायड तथा अल्पाइन प्रजाति के लोगों के अस्तित्व के भी प्रमाण मिले हैं।
सिंधु घाटी सभ्यता के प्रमुख नगर
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- हड़प्पा
• इसकी खोज 1921 में, दयाराम साहनी के नेतृत्व में हुई थी। यह पंजाब (पाकिस्तान) में रावी के तट पर मांटगोमरी जिले में स्थित है। यहाँ से दो कतारों में कुल 12 अन्न भंडार (धान्य कोठार) प्राप्त हुए हैं, दो प्रकार के कंकाल भी यहाँ से प्राप्त हुए हैं जिन्हें ‘आर–37’ और ‘एच’ नाम से जाना जाता है। यहाँ से पकी मिट्टी की स्त्री–मूर्तियाँ बड़ी संख्या में प्राप्त हुई हैं संभवतः यह पृथ्वी देवी की प्रतिमा है। यहाँ से एक योगी की मूर्ति भी प्राप्त हुई है। इसके अतिरिक्त यहाँ से पुरुष अर्धनग्न मूर्ति, कांस्य कलाकृतियाँ एवं श्रमिक आवास भी प्राप्त हुए हैं। - मोहनजोदड़ो
• इसकी खोज 1922 में राखाल दास बैनर्जी के नेतृत्व में हुई यह पाकिस्तान के सिंध प्रांत के लरकाना जिले में स्थित है। मोहन जोदड़ो का शाब्दिक अर्थ है ‘मृतकों का टीला’। मोहनजोदड़ो को ‘सिंध का नवलिस्तान’ या ‘सिंध का बाग’ भी कहा जाता है। यहाँ से विशाल स्नानागार एवं कांस्य की नृत्य मूर्ति प्राप्त हुई है। यहाँ से पुजारी की मूर्ति, स्त्री कपड़ा, मोहर पर योगी की आकृति, पुरोहित आवास, सभा भवन एवं विशाल अनाजघर आदि प्राप्त हुए हैं। धान्यकोठार यहाँ की सबसे बड़ी इमारत है। - चन्हूदड़ो
• इसकी खोज 1931 में एम.जी. मजुमदार ने की थी। यह भी पाकिस्तान के सिंध में स्थित है। यह बस्ती लगभग पूरी तरह से शिल्प–उत्पादन में संलग्न थी। शिल्प कार्य में मनके बनाना, शंख की कटाई, धातुकर्म, मुहर निर्माण, बाट बनाना सम्मिलित थे। - कालीबंगन
• इसकी खोज ए.एन. घोष ने 1953 में की। यह राजस्थान में घग्गर नदी के तट पर स्थित है। यहाँ से अग्निवेदी (हवन कुंड), कच्ची ईंटों के मकान, सिंधु डिज़ाइन वाली बेलनाकार मुहर तथा अलंकृत फर्श प्राप्त हुए हैं। यहाँ से जुते हुए (खाँदेदार) खेत मिले हैं जिसमें हल रेखाओं को दो समूह एक–दूसरे को समकोण पर काटते हुए विद्यमान थे जो दर्शाते हैं कि एक साथ दो अलग–अलग फसलें उगाई जाती थीं। यह प्राचीन हड़प्पा एवं परिपक्व हड़प्पा स्थल है। यहाँ अन्य उन्नत जल निकासी व्यवस्था का अभाव था। - लोथल
• इसकी खोज एस.आर. राव ने 1957 में की। यह गुजरात में स्थित है तथा यह नगर इस सभ्यता का बंदरगाह नगर था। युगल शवाधान, मनकों की दुकाने, हाथी दांत का पैमाना, फर्स की खाड़ी की मोहर यहाँ से प्राप्त हुई है। यहाँ अग्निकुंड की परंपरा प्रचलित थी। यहाँ से घोड़े की संदिग्ध मूर्तिका (टेराकोटा) प्राप्त हुई है। यहाँ पूरा नगर किलेबंद था। - बनावली
• हरियाणा में स्थित, इसकी खोज 1973 में आर.एस. बिष्ट ने की। यहाँ से मिट्टी का खिलौना हल प्राप्त हुआ। यह प्राचीन हड़प्पा एवं हड़प्पोत्तरकालीन स्थल है। यहाँ उन्नत किस्म का जौ उगाया जाता था। - धोलावीरा
• गुजरात के कच्छ में स्थित इस नगर की खोज जे.पी. जोशी द्वारा की गयी। यहाँ पर सिंधु सभ्यता की तीनों अवस्थाएँ मिली हैं। यहाँ पूरा नगर किलेबंद था। यहाँ की जल प्रबंधन की व्यवस्था उत्तम थी। यहाँ जलाशयों का प्रयोग संभवतः कृषि के लिए जल संचयन हेतु किया जाता था। - अन्य महत्वपूर्ण नगर
- राखीगढ़ी – हरियाणा स्थित यह नगर धोलावीरा से भी बड़ा है। यहाँ तीनों अवस्थाएँ प्राप्त होती हैं।
- सुरकोटदा – गुजरात, खोज जगपति जोशी ने की। यहाँ से घोड़े के अस्थियों के अवशेष मिले हैं।
- शोतुगाई – अफगानिस्तान, व्यावारिक उपनिवेश, यहाँ से नहरों के अवशेष भी मिले हैं।
सिंधु घाटी नगर नियोजन
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इस संस्कृति की प्रमुख विशेषता ‘नगर नियोजन’ थी। अब तक लगभग 1500 स्थलों की खोज हो चुकी है इसमें 7 नगर महत्वपूर्ण हैं। सुदृढ़ आर्थिक व्यवस्था के कारण ही हड़प्पा में नगरीय सभ्यता का विकास हुआ।
नागरीय संरचना एवं भवन:
• इनका नगर नियोजन आयताकार था। हड़प्पा और मोहनजोदड़ो दोनों नगरों के अपने–अपने दुर्ग थे। नगर दो भागों में बंटा हुआ था। प्रथम भाग कुछ ऊँचाई पर बसा हुआ था तथा दुर्गांकित था, संभवतः वह शासक वर्ग के रहने के प्रयोग में आता था। दुर्ग के बाहर निम्न स्तर पर बसा शहर था, जहां जन–सामान्य रहता था। सड़कों व गलियों के दोनों ओर मकान बने हुए थे। मकान सड़कों के दोनों ओर विन्यस्त थे। नगर–नियोजन में वीथि साम्य का प्रयोग नहीं।
जल–निकासी प्रणाली:
• ‘जल निकासी की उत्तम व्यवस्था’ सर्वाधिक महत्वपूर्ण विशेषताओं में थी। ऐसी व्यवस्था संसार की अन्य किसी समकालीन सभ्यता में नहीं मिलती। नगरों के मकानों में प्रांगण और स्नानागार थे। जल निकासी के लिए नालियाँ थीं। सफाई हेतु मौरियाँ एवं नरस्मोच (मेनहोल) बने थे।
सड़कें:
• सड़कें जाल की तरह विन्यस्त थीं। सड़कें एक दूसरे को समकोण पर काटती थीं और अनेक खंडों में विभक्त थीं।
सार्वजनिक स्नानागार:
• मोहनजोदड़ो का सबसे महत्वपूर्ण सार्वजनिक स्थल था विशाल स्नानागार। माना जाता है कि यह विशाल स्नानागार धर्मानुष्ठान संबंधी स्नान के लिए बना होगा।
धान्य–कोठार
• नगर में व्यापार संचालन एवं भंडारण के लिए विशाल धान्य कोठार बनाए गए थे।
पक्की ईंटों का प्रयोग:
• हड़प्पा में आग से पकाई गई पक्की ईंटों का प्रयोग बहुतायत से हुआ है। समकालीन सभ्यता में मेसोपोटामिया में ही कुछ मात्रा में पक्की ईंटों का प्रयोग मिला है।
बंदरगाह नगर :
• लोथल, सुतकागेंडोर, सुरकोटदा समुद्रतटीय नगर
सिंधु घाटी सभ्यता की अर्थव्यवस्था
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इस सभ्यता के लोग आर्थिक दृष्टि से समृद्ध थे, जिसका मुख्य कारण सिंचित कृषि था। ये उद्योग, व्यापार में भी बहुत उन्नत थे।
कृषि
• यहाँ गेहूँ और जौ (दोनों का प्रमुख स्थान) मटर, तिल तथा सरसों आदि उगाए जाते थे। यहाँ सिंचाई की व्यवस्था थी। संभवतः चावल नहीं उगाया जाता था केवल दो स्थान रंगपुर तथा लोथल में चावल उगाने के प्रमाण मिले हैं। सिंधु सभ्यता के लोग कपास उगाने वाले संसार के सर्वप्रथम लोग थे। इसलिए यूनानी लोगों द्वारा कपास को सिंडोन कहा जाता था।
पशुपालन
• बैल, गाय, भैंस, भेड़, बकरी, गधे, ऊँट आदि जानवरों से यहाँ के निवासी परिचित थे। किन्तु ‘घोड़े’ से अपरिचित थे। केवल एक स्थान सुरकोटदा में घोड़े के अवशेष प्राप्त हुए हैं। लोथल में इसकी संदिग्ध मूर्तिका (टेराकोटा) भी मिली है।
वस्तु विनिमय
• संभवत: इनका व्यापार वस्तु विनिमय के द्वारा होता था।
व्यापार
• व्यापार जल–थल दोनों मार्गों से होता था। हड़प्पाई लोगों के राजस्थान, फारस, अफगानिस्तान, मेसोपोटामिया तथा सुमेर सभ्यता के लोगों से व्यावारिक संबंध थे। मेसोपोटामिया के लोग सिंधु सभ्यता के लोगों को मेस्तूहच (मेलुहा) कहकर पुकारते थे। सिंधु सभ्यता के मुख्य आयात निम्नलिखित थे –
- टिन, रांगा, चाँदी — अफगानिस्तान
- लाजवर्द मणि (Lapis Lazuli) — बदख्शाँ (अफगानिस्तान)
- तांबा — खेतड़ी, गणेश्वर (राजस्थान)
- सोना — कोलार (कर्नाटक)
- फिरोजा — खुरासान (ईरान)
• उनका अफगानिस्तान में एक वाणिज्य उपनिवेश ‘शोतुगाई’ में था।
माप–तौल
• इन्हें माप तौल तथा तराजु की भी जानकारी थी। माप के बाट प्रायः चमकदार पत्थर के बने होते थे एवं मुख्यतः घनाकार होते थे। तौल प्रणाली ‘हिडर’ एवं दाशमिक प्रणाली पर आधारित थी जिसमें 16 के आवर्तकों (1, 2, 4, 8, 16, 32, 64, 160, 320) का व्यवहार होता था।
शिल्प तथा तकनीकी ज्ञान
• हड़प्पा संस्कृति मुख्यतः काँस्य या ताम्र पाषाणिक युग की संस्कृति है। यहाँ के निवासियों को सोना, तांबा, टिन आदि धातुओं का ज्ञान था, किन्तु ‘लौह का ज्ञान नहीं’ था।
• मिट्टी की मुद्रा तथा मूर्तिका निर्माण महत्वपूर्ण शिल्प था। यहाँ के लोग कुम्हार के चाक से परिचित थे। बैलगाड़ी तथा नावों का निर्माण भी किया जाता था। आभूषण निर्माण होता था, बर्तनों पर विभिन्न रंगों की चित्रकारी भी मिलती है। वस्त्र निर्माण, मनका निर्माण महत्वपूर्ण उद्योगों में था।
मुहरें
सभ्यता के विभिन्न स्थलों से प्रपट लगभग 2000 मुहरें इस सभ्यता किओ जानकारी के प्रमुख स्त्रोत हैं। मुहरे प्रायः सेलखड़ी से बनती थीं एवं अधिकांशतः चाओकोर हुआ करती थी।
सिंधु घाटी सभ्यता की धार्मिक प्रथाएँ
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आराध्य
- मातृदेवी पूजा – यहाँ के लोग मुख्य रूप से मातृदेवी (धरती माता) की उपासना करते थे। मातृदेवी उर्वरता की देवी की भाँति पूजित थी।
- पशुपतिनाथ पूजा – मोहन जोदड़ो से प्राप्त मुहर पर एक देवता अंकित है जिसके आसपास हाथी, बाघ, गैंडा, हिरण आदि जानवर हैं, यह वर्तमान पशुपति नाथ या शिव की उपासना की ओर ध्यान आकर्षित करता है।
- प्रकृति पूजा – वृक्षों, पक्षियों, कूबड़वाला सांड, जल, अग्नि तथा सापों की पूजा भी होती थी।
- लिंग और योनि पूजा भी प्रचलित थी।
विविध मान्यताएं
- मूर्तिपूजा का चलन था पर मंदिर निर्माण नहीं।
- जादू टोना, ताबीजों का प्रयोग होता था।
- पशु बलि प्रथा भी प्रचलित थी।
- कालीबंगन से अग्निवेदी (हवन कुंड) मिला है।
- पुजारी की मूर्ति, मोहर पर योगी आकृति, पुरोहित आवास आदि नियमित पुरोहित वर्ग की ओर इशारा करते हैं।
- मोहनजोदड़ो का विशाल स्नानागार शायद धर्मानुष्ठान संबंधी स्नान के लिए बना था।
मृतक संस्कार
- यहाँ मृतक संस्कार की सर्वाधिक प्रचलित विधि दफनाना थी। इसके अतिरिक्त शवों को जलाकर अवशेषों को बर्तनों में एकत्र कर दफनाना तथा पशु-पक्षियों के लिए छोड़ना भी प्रचलित पद्धतियाँ थीं।
- आर.सी. मजूमदार के अनुसार सिंधु सभ्यता में प्राचीन हिन्दू धर्मों के मुख्य अंगों का प्रचलन था।
- किंतु लिपि को पढ़े बगैर धार्मिक विश्वासों के बारे में कहना कठिन है।
सिंधु घाटी सभ्यता की राजनैतिक दशा
- सिंधु सभ्यता के शासन व्यवस्था पर विद्वानों में मतभेद हैं।
- अनेक विद्वानों के अनुसार यह कार्य व्यापारियों के द्वारा किया जाता था।
- व्हीलर के अनुसार यहाँ मध्यमवर्गीय जनतांत्रिक शासन था जिस पर धार्मिक प्रभाव था।
- पिग्गट के अनुसार यहाँ शासन पर पुरोहित वर्ग का प्रभाव था जबकि मैके के अनुसार यहाँ प्रतिनिधि शासन था।
- यहाँ के लोग शान्तिप्रिय थे। इस बात का प्रमाण यहाँ प्राप्त हथियार हैं जो कि आक्रामक न होकर सुरक्षात्मक प्रकृति के हैं।
सिंधु घाटी सभ्यता की कलाएँ
- यहाँ की कला का सर्वोत्तम उदाहरण मोहन जोदड़ो से प्राप्त कांस्य की नर्तकी की मूर्ति है जिसके तन पर हार के अतिरिक्त कुछ नहीं है।
- यहाँ के निवासियों को चित्रकला का ज्ञान था। वे मिट्टी के बर्तनों पर तरह–तरह के चित्र बनाते थे।
- लाल मृद्भाण्डों में काले रंग से चित्रकारी सिंधु सभ्यता से सम्बन्ध है।
सिंधु घाटी सभ्यता की लिपि
- यहाँ के लोग लेखन कला से परिचित थे। हड़प्पा लिपि का प्राचीनतम साक्ष्य 1853 में मिला और 1923 तक सम्पूर्ण लिपि प्रकाश में आ गयी। किन्तु अभी तक उनकी लिपि को पढ़ने में सफलता प्राप्त नहीं हुई है। लिपि का महत्वपूर्ण स्रोत मुहरें हैं। यह लिपि वर्णात्मक नहीं वरन् भावचित्रात्मक (चित्राक्षर) है। लिपि में कुल मिलाकर 250 से 400 चित्राक्षर है। मुख्यतः मुहरों एवं विभिन्न वस्तुओं पर अब तक लिपि के लगभग 4000 नमूने प्राप्त हो चुके हैं।
सिंधु घाटी सभ्यता के पतन के कारण
- जितना कठिन हड़प्पा संस्कृति का उत्पत्ति जानना है उतना ही कठिन उसका पतन जानना भी है। मेसोपोटामिया एवं समकालीन प्राचीन सभ्यताएं तो 1800 ई.पू. के बाद भी विद्यमान रही पर हड़प्पा की नगर संस्कृति लगभग लुप्त हो गई। इसके बहुत से कारण बताये जाते हैं।
सिंधु नदी की बाढ़ :
- ई.जे.एच. मैके व जॉन मार्शल का मत, सिंधु में बार–बार आने वाली बाढ़ के कारण मोहनजोदड़ो नगर की सात तहें मिली है।
भौगोलिक परिवर्तन के कारण :
- ऑरल स्टीन का मत सिंधु क्षेत्र में वर्षा की मात्रा ई.पू. दूसरी सहस्राब्दी के आरम्भ में कम होने लगी इससे खेती और पशुपालन पर बुरा असर पड़ा।
- कुछ लोगों का मत है कि पड़ोस के गेगिस्तान के फैलाव के फलस्वरूप मिट्टी में लवणता बढ़ गई और उर्वरता घटती गई कालान्तर में जलवायु शुष्क होती गयी।
- फेयर सर्विस ने भी पारिस्थितिकी असंतुलन को पतन का कारक माना है।
भूतात्त्विक परिवर्तन :
- डेल्स का मत, भूकम्प के कारण सिंधु नदी की धारा बदल गई, जिसके फलस्वरूप मोहनजोदड़ो की पृष्ठभूमि वीरान हो गई। जमीन धंस गई या ऊपर उठ गई जिससे बाढ़ का पानी जमा हो गया। रेडक्स ने भी भूकम्प को कारक माना है।
सिंधु नदी का मार्ग परिवर्तन
- लैम्ब्रिक के अनुसार, तर्क – वर्तमान में नगर से नदी दूर है।
बाह्य आक्रमणकारियों द्वारा
- गार्डन चाइल्ड, मार्टिमर व्हीलर का मत, तर्क
अ. मोहन जोदड़ो के ऊपरी स्तर पर कंकालों का अवशेष, आर्यों द्वारा स्थानीय जनसंख्या के संहार का प्रमाण है।
ब. ऋग्वेद में इंद्र को दुर्ग संहारक कहा गया है।
स. सिंधु निवासियों की आत्मरक्षी कमजोरियां - अधिकांश विद्वान यह मानने से इंकार करते हैं कि सिंधु सभ्यता का अंत आर्यों के आक्रमण के कारण हुआ।
- पतन का कोई एक निश्चित कारण नहीं था। वैदिक सभ्यता का विकास नगर व गाँवों के आंतरिक संबंधों तथा बाह्य कृषक समाज के संबंधों पर आधारित था, इन्हीं संबंधों में परिवर्तन के कारण हड़प्पा की नागरिक अवस्था का पतन हुआ।
सिंधु घाटी सभ्यता – वस्तुनिष्ठ प्रश्न (MCQs)
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